मानव सभ्यता के विकास में संचार माध्यम का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मानव ने संवाद की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भाषाओं और लिपियों का विकास किया। भाषा और लिपि ने न केवल संचार के साधन के रूप में कार्य किया, बल्कि उन्होंने संस्कृति, धर्म, और ज्ञान के संचार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लिपियों का इतिहास हमें सभ्यताओं के विकास, उनके सांस्कृतिक आदान-प्रदान और ज्ञान के विस्तार की गहराईयों तक ले जाता है।
इस लेख में हम प्राचीन भारतीय लिपियों की यात्रा का अवलोकन करेंगे, जिसमें विशेष रूप से सिन्धु लिपि, ब्राह्मी लिपि, और इनका जैन धर्म और भारतीय संस्कृति में योगदान शामिल है। साथ ही, हम यह भी जानेंगे कि कैसे ये लिपियाँ भारतीय सभ्यता की धरोहर का हिस्सा बनीं और समय के साथ उनका विकास हुआ।
लिपि शब्द की उत्पत्ति और प्रारंभिक विकास
“लिपि” शब्द संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुआ है, जिसका मूल रूप “लिप” धातु से लिया गया है। इसका अर्थ होता है “लेपना” या “पोतना”। प्राचीन काल में लेखन के कार्य को एक विशेष सतह पर उकेर कर किया जाता था, और इससे पहले उस सतह पर पॉलिश या लेपन किया जाता था। यह प्रक्रिया किसी भी सतह पर अक्षरों को स्पष्ट रूप से उकेरने के लिए अनिवार्य मानी जाती थी। उदाहरण के लिए, भोजपत्र और पत्थरों पर लेखन से पहले उनकी सतह को पॉलिश किया जाता था।
इतिहास में लिपि के विकास को विभिन्न चरणों में देखा जा सकता है, जिसमें प्राचीन सभ्यताओं की लिपियाँ, जैसे सिन्धु लिपि और ब्राह्मी लिपि प्रमुख रूप से उभरती हैं।
सिन्धु लिपि: प्राचीनतम लिपियों में से एक
सिन्धु लिपि को भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन लिपियों में से एक माना जाता है। यह लिपि सिन्धु घाटी सभ्यता (2600-1900 ईसा पूर्व) के दौरान विकसित हुई, जो एक अत्यंत उन्नत शहरी सभ्यता थी। सिन्धु घाटी सभ्यता की प्रमुख बस्तियाँ, जैसे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा, आधुनिक पाकिस्तान और भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थित थीं।
इस सभ्यता की लिपि को आज भी पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। सिन्धु लिपि का उपयोग मुहरों, मिट्टी की गोलियों, बर्तनों और अन्य वस्त्रों पर किया जाता था। यह लिपि आमतौर पर आकृतियों, संकेतों, और प्रतीकों से मिलकर बनी थी, जो शायद धार्मिक या प्रशासनिक कार्यों में प्रयुक्त होती थी।
सिन्धु लिपि की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह लगभग 400-600 विभिन्न प्रतीकों से बनी है। यह प्रतीक चित्रात्मक प्रतीत होते हैं, लेकिन इनका वास्तविक अर्थ आज भी विवादास्पद बना हुआ है। कई भाषाविदों और पुरातत्त्वविदों ने इसे विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने का प्रयास किया, लेकिन यह अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है। यह लिपि भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा मानी जाती है।
सिन्धु लिपि का प्रभाव न केवल भारत, बल्कि प्राचीन सभ्यताओं में भी देखने को मिलता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसका संबंध मेसोपोटामिया और अन्य प्राचीन सभ्यताओं से हो सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय सभ्यता का अन्य संस्कृतियों के साथ सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध थे।
ब्राह्मी लिपि: भारतीय लिपियों की जननी
ब्राह्मी लिपि को भारतीय लिपियों की जननी के रूप में माना जाता है। यह लिपि लगभग 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में विकसित हुई और इसे प्राचीनतम लिपियों में से एक माना जाता है। ब्राह्मी लिपि का सबसे प्राचीन प्रमाण अशोक के शिलालेखों में मिलता है, जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास के माने जाते हैं। यह लिपि प्राचीन भारतीय इतिहास और साहित्य के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण थी।
भाषा और लिपि
ब्राह्मी लिपि देवनागरी और अन्य भारतीय लिपियों की पूर्वज मानी जाती है। ब्राह्मी लिपि से देवनागरी, गुजराती, बंगाली, तमिल, तेलुगू, और अन्य आधुनिक लिपियाँ विकसित हुईं।
ब्राह्मी लिपि का प्रमुख उपयोग धार्मिक और प्रशासनिक कार्यों में हुआ करता था। यह लिपि प्राचीन भारत में संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में लेखन के लिए प्रयुक्त होती थी।
अशोक के शिलालेखों में इस लिपि का उपयोग बौद्ध धर्म के संदेशों को प्रसारित करने के लिए किया गया था। अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं, और वे भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में पाए जाते हैं, जो इस लिपि की व्यापकता को दर्शाते हैं।
ब्राह्मी लिपि के विकास में जैन धर्म का भी महत्वपूर्ण योगदान है। जैन ग्रंथों में ब्राह्मी लिपि का उल्लेख मिलता है, और यह कहा जाता है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को अठारह प्रकार के अक्षर सिखाये, आगे चलकर यह लिपि ब्राह्मी के नाम से ब्राह्मी लिपि कहलाई। जैन ग्रंथों, जैसे ‘पन्नवनसूत्र’ और ‘समवायंगसूत्र’ में भी इस लिपि का उल्लेख मिलता है।
जैन धर्म और लिपि का विकास
जैन धर्म में लिपियों का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जैन धर्म के आचार्यों और विद्वानों ने लिपियों के माध्यम से धर्म के उपदेशों और शिक्षाओं को संरक्षित और प्रसारित किया। जैन ग्रंथों में अठारह लिपियों का उल्लेख मिलता है, जो प्राचीन भारतीय समाज में विद्यमान थीं। जैन धर्म के महान ग्रंथों, जैसे ‘भगवती सूत्र’ में भी ब्राह्मी लिपि का उल्लेख है।
महावीर स्वामी, जो जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, ने अपने उपदेशों को लोकभाषा में दिया। उनका उद्देश्य था कि धर्म के संदेश को आम जन तक पहुँचाया जा सके। इसके लिए जैन आचार्यों ने लिपियों का प्रयोग किया और उन्हें संरक्षित किया। जैन धर्म में लिपियों का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी था।
भाषा और लिपि: भारत की अठारह भाषाओं का सम्मिश्रण अर्धमागधी भाषा
प्राचीन जैन ग्रंथ ‘पण्णवणासुत्त’ में भी यह कहा गया है कि ये लिपियाँ अर्धमागधी भाषा में बोली और लिखी जाती थीं अर्धमागधी एक प्राकृत भाषा थी, जो भारत की अठारह भाषाओं का सम्मिश्रण थी। आचार्य श्रुतसागर सूरि ने ‘तत्त्वार्थ वृत्ति’ में लिखा है कि अर्धमागधी भाषा का आधा हिस्सा मगधदेश की भाषा से और आधा भारत की अन्य भाषाओं से बना था। महावीर स्वामी ने अपने उपदेश इसी भाषा में दिए थे ताकि प्रत्येक व्यक्ति इसे समझ सके। इस प्रकार भाषा और लिपि के बारे में जैन शास्त्रों से उपयोगी जानकारी मिलाती है.
अब सवाल यह है कि ये अठारह लिपियाँ कौन-कौन सी थीं? अभिधान राजेंद्रकोश, कल्पसूत्र, भगवती सूत्र, और आवश्यकचूर्णि जैसे ग्रंथों में इन लिपियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनमें से प्रमुख लिपियाँ थीं:
- यावनी
- दोषोपकारिका
- खरोष्ट्रिका
- अक्षरपृष्ठिका
- भोगवतिका
- वैणयिका
- अकलिपि
- गणितिलिपि
- गन्धवेलिपि
- भूतलिपि
- माहेश्वरीलिपि
- द्राविडिलिपि
- पुलिंदलिपि
इन लिपियों में से कुछ, जैसे खरोष्ठी, यावनी (यूनानी), और द्राविडिलिपि, भारत के विभिन्न क्षेत्रों और कालों में विकसित और प्रचलित थीं। खरोष्ठी का उपयोग विशेष रूप से उत्तर-पश्चिम भारत में किया जाता था।
जैन धर्म में श्रुतपंचमी का एक विशेष महत्व है, जो जैन धर्मग्रंथों की पूजा और लेखन का पर्व है। इस दिन लिपियों की पूजा की जाती है और इसे एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में माना जाता है। जैन धर्म में लिपियों को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है, और उनका द्वार सभी के लिए खुला रखा गया, चाहे वह शूद्र हो या ब्राह्मण, क्षत्रिय हो या वैश्य।
ब्राह्मी लिपि का चित्रलिपि से विकास
ब्राह्मी लिपि का विकास चित्रलिपियों से हुआ माना जाता है। प्रारंभिक मानव सभ्यता में भाषा और लिपि का उपयोग चित्रों और आकृतियों के माध्यम से किया जाता था। इस संबंध में “योगवासिष्ठ” के एक श्लोक में उल्लेख मिलता है कि प्रारंभिक लिपियाँ आकृतियों के माध्यम से अभिव्यक्त होती थीं:
श्लोक:
लिपिकर्मापिताकार ध्यानासक्तधियश्च ते।
अन्तस्थेन सनसा चिन्तयासुरबुद्धया॥
इस श्लोक का अर्थ है कि लोग ध्यान में लीन होकर लिपिकर्म करते समय आकृतियों को उकेरते थे। इसी प्रकार, जैन ग्रंथों में भी चित्रलिपियों का उल्लेख मिलता है, जिसमें देवताओं के चित्रों को दीवारों पर उकेरकर लेखन किया जाता था।
ब्राह्मी लिपि का चित्रलिपियों से विकास होना इस बात का प्रमाण है कि भारत में लिपियों का विकास एक स्वदेशी प्रक्रिया थी, जो किसी विदेशी लिपि से प्रभावित नहीं हुई। सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपियाँ, जैसे सिन्धु लिपि, प्राचीन भारतीय लिपियों का आधार मानी जाती हैं।
सिन्धु घाटी और ब्राह्मी लिपि का संबंध
सिन्धु घाटी की सभ्यता को एक उन्नत सभ्यता माना जाता है, जिसका सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सिन्धु लिपि और ब्राह्मी लिपि के बीच के संबंधों को लेकर कई सिद्धांत दिए गए हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि सिन्धु लिपि ब्राह्मी लिपि का पूर्वरूप हो सकता है, जबकि अन्य विद्वानों का मानना है कि दोनों लिपियों का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ था।
सिन्धु घाटी की सभ्यता भारतीय सभ्यता का एक अभिन्न हिस्सा थी, और उसके निशान भारत की आगे विकसित होने वाली सभ्यताओं में भी देखे जा सकते हैं। मोहन-जो-दड़ो और मथुरा की जैन मूर्तियों में समानता का भी कई इतिहासकारों ने वर्णन किया गया है, खासतौर पर ध्यानावस्था और वैराग्यपूर्ण मुद्रा, जो जैन मूर्तियों में अद्वितीय मानी जाती हैं। इसे प्राचीन मिश्र और ग्रीक मूर्तियों की ध्यानावस्था से भिन्न बताया गया है। यह भी उल्लेख किया गया है कि जैन धर्म और संस्कृति सिन्ध और पंजाब क्षेत्रों में विकसित हुई, जिसका प्रमाण बाहुबली के राज्य से जुड़ी कहानियों में मिलता है।
हालांकि, इस संबंध में कोई ठोस प्रमाण नहीं है, लेकिन यह संभव है कि सिन्धु लिपि ने प्राचीन भारतीय लिपियों के विकास पर किसी प्रकार का प्रभाव डाला हो। सिन्धु घाटी की सभ्यता के पतन के बाद, भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न लिपियों का विकास हुआ, जिनमें ब्राह्मी लिपि सबसे प्रमुख थी।
लिपियों का सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव
भारत में लिपियों का सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण था। लिपियों के माध्यम से धार्मिक ग्रंथों का लेखन हुआ, जिससे धर्म और संस्कृति का प्रसार संभव हो सका। बौद्ध धर्म, जैन धर्म, और हिंदू धर्म में लिपियों का विशेष स्थान था, क्योंकि इन धर्मों के धार्मिक ग्रंथ और उपदेश लिपियों के माध्यम से ही संकलित और संरक्षित किए गए।
बौद्ध धर्म के प्रसार में ब्राह्मी लिपि का महत्वपूर्ण योगदान था। अशोक ने ब्राह्मी लिपि में अपने शिलालेखों के माध्यम से बौद्ध धर्म के उपदेशों का प्रसार किया। जैन धर्म में भी लिपियों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, जहां धर्म के उपदेशों को संरक्षित और प्रसारित किया गया।
लिपि और लेख
समय के साथ “लिपि” और “लेख” के बीच का भेद स्पष्ट हो गया। लेखक लिखने का कार्य करता था, जबकि शिल्पी उन लेखों को पत्थरों या अन्य सतहों पर उत्कीर्ण करता था। कई प्राचीन भारतीय शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है, जैसे कि “राजतरंगिणी” और “विनयपिटक” में लेखकों और शिल्पियों के काम को स्पष्ट किया गया है। लिपि का विकास विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में भी देखा गया। ईरानी सम्राट दारा प्रथम के अभिलेखों में भी लिपि का उल्लेख मिलता है। अशोक के शिलालेखों में “लिपि” और “दिपि” दोनों शब्दों का उपयोग हुआ है, जो लेखन की प्रक्रिया से जुड़े हैं। इस प्रकार, लिपि और लेख शब्द पर्यायवाची हैं। प्राचीन समय में लेखन प्रक्रिया में पहले सतह को लीपने और पॉलिश करने की परंपरा थी, जिसके बाद अक्षर उकेरे जाते थे। लेखन के ये रूप विविध साधनों और औजारों से जुड़े थे, जिनमें लेखक और शिल्पी की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।
उपसंहार
लिपियों का विकास मानव सभ्यता के इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत में लिपियों का विकास एक स्वदेशी प्रक्रिया थी, जो सांस्कृतिक, धार्मिक, और सामाजिक परिवर्तनों से प्रभावित हुई। सिन्धु लिपि और ब्राह्मी लिपि जैसे लिपियों ने भारतीय इतिहास और संस्कृति को समृद्ध किया।