दोस्तों, प्रणाम! आज हम बात करेंगे श्री चंद्रप्रभस्वामी जैन देरासर, प्रभास पाटन की; इस तीर्थ के भव्य इतिहास की। श्री चंद्रप्रभासपाटन महातीर्थ: एक प्राचीन जैन तीर्थ, जहाँ इतिहास, आस्था और दिव्यता का संगम होता है। जानिए इस पवित्र स्थल का गौरवशाली इतिहास, चमत्कारी घटनाएं और भव्य मंदिरों की अद्भुत कहानी।
चंद्रप्रभास पाटण को इतिहास में कई नामों से जाना जाता है—चंद्रप्रभा, देवपट्टण, सोमनाथ, और प्रभास। यह स्थान सहस्राब्दियों पुराना है और जैन धर्म के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थस्थल माना जाता है। इसकी स्थापना का गौरवशाली इतिहास भगवान आदिनाथ के पुत्र, श्री भरत चक्रवर्ती से जुड़ा हुआ है।
हम एक ऐसे नगर में खड़े हैं, जिसकी स्थापना अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर, श्री ऋषभदेव स्वामी के पुत्र, श्री भरत चक्रवर्ती ने की थी। प्राचीन काल में यह स्थान श्री शत्रुंजय महातीर्थ के ‘चंद्रोद्यान’ के नाम से प्रसिद्ध था। सौराष्ट्र के पश्चिमी-दक्षिणी समुद्र तट पर स्थित यह पवित्र भूमि अनादि काल से श्रद्धा और भक्ति का संगम बनी हुई है।
यहीं भगवान सोमनाथ महादेव के दिव्य मंदिर की घंटियाँ अनंतकाल से गूँज रही हैं। यह कोई साधारण स्थल नहीं, बल्कि भारत की गौरवशाली संस्कृति, इतिहास, और धार्मिक धरोहर का अमूल्य रत्न है!
श्री चंद्रप्रभास पाटण एक ऐसा तीर्थ, जहाँ स्वयं इतिहास के सबसे महान पात्रों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई!
समय बदला, युग बदले, राजाओं का आना-जाना हुआ, लेकिन इस तीर्थ की महिमा कभी कम नहीं हुई। द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ स्वामी के समय में श्री सगर चक्रवर्ती ने यहाँ यात्रा की थी और सिद्धगिरि की रक्षा हेतु उन्होंने सागर को नजदीक किया था। अष्टम तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभस्वामी को जब केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था, तब वे इसी समुद्र तट पर ध्यानमग्न थे। केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद, उनका समवसरण भी यहीं आयोजित हुआ। राजा चंद्रयश ने यहाँ चंद्रकांत मणि से बनी दिव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित कर एक नए मंदिर में स्थापित की।
भगवान शांतिनाथ के शासनकाल में उनके पुत्र चक्रधर राजा ने इस स्थान की यात्रा कर भव्य उत्सव मनाया। बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी के शासनकाल में दशरथ महाराज यहाँ अपने पुत्रों – श्रीराम और लक्ष्मण के साथ पधारे, और माता सीता ने यहाँ एक जिन मंदिर बनवाया। जब बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ का युग था, तब पाँचों पांडव भी इस तीर्थ के दर्शन करने आए। 23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान के शासनकाल में उनके छोटे भाई राजा हस्तिसेन ने संघ के साथ यहाँ यात्रा कर उत्सव मनाया।
ऐसा तीर्थ, जहाँ स्वयं इतिहास के सबसे महान पात्रों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई!

श्री जिनप्रभसूरीजी रचित “चतुरशीति महातीर्थ नामसंग्रहकल्प” के अनुसार श्री नंदिवर्धनराजा द्वारा भरवाई गई और श्री गौतमस्वामी द्वारा प्रतिष्ठित श्री चंद्रप्रभस्वामी भगवान की महाप्रभावशाली प्रतिमा यहाँ श्री प्रभासपाटन में विराजमान है.
भगवान महावीर स्वामी के शासनकाल में भी यह तीर्थ उतना ही प्रभावशाली बना रहा। आज यहाँ मूलनायक श्री चंद्रप्रभस्वामी विराजमान हैं – जिनकी प्रतिमा भव्य, चमत्कारी और अत्यंत अद्भुत है। सन् 788 के आसपास जब मलेच्छों के आक्रमण से वल्लभी नगर नष्ट हो गया, तब वहाँ से यह प्रतिमा अंबिका देवी और अधिष्ठायक देव की कृपा से आकाश मार्ग से यहाँ लाई गई। यह लगभग साढ़े चार फुट ऊँची, आनंदमयी और अत्यंत सुंदर प्रतिमा अपने श्वेत संगमरमर के बदले हुए रंग के कारण अपनी प्राचीनता का प्रमाण देती है।
श्री जिनप्रभसूरीजी रचित “चतुरशीति महातीर्थ नामसंग्रहकल्प” के अनुसार श्री नंदिवर्धनराजा द्वारा भरवाई गई और श्री गौतमस्वामी द्वारा प्रतिष्ठित श्री चंद्रप्रभस्वामी भगवान की महाप्रभावशाली प्रतिमा यहाँ श्री प्रभासपाटन में विराजमान है. याने यह प्रतिमाजी वलभी (वलभीपुर) में प्रभु श्री महावीर स्वामी के भाई श्री नंदिवर्धनराजा और प्रभु श्री महावीर स्वामी के प्रथम गणधर लब्धि के भंडार श्री गौतमस्वामी द्वारा प्रतिष्ठा कारवाई गई होगी।
इन आठ मंदिरों में से तीर्थाधिराज श्री चंद्रप्रभास्वामी, श्री महाप्रभाविक दादा पार्श्वनाथ (दोकड़िया पार्श्वनाथ), श्री शांतिनाथ और श्री सुविधिनाथ के मंदिर अत्यंत जीर्ण अवस्था में थे। श्री संघ ने इनके जीर्णोद्धार का संकल्प लिया और इसे सफलतापूर्वक पूर्ण किया।
गजेन्द्रपूर्ण प्रासाद का निर्माण
पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजयउदयसूरीश्वरजी महाराज के आदेशानुसार तथा भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त प्रसिद्ध शिल्पी श्रीयुत प्रभाशंकर ओधवजी के कुशल नेतृत्व में श्री संघ ने ‘गजेन्द्रपूर्ण प्रासाद’ के निर्माण का निर्णय लिया। इसके लिए विक्रम संवत 2009 की वैशाख सूद 10 को आधारशिला रखी गई। इसके बाद श्री संघ ने मंदिर निर्माण का कार्य पूरे उत्साह के साथ प्रारंभ किया। रोज़ सैकड़ों कारीगर इस कार्य में संलग्न होते थे, जिसके परिणामस्वरूप तीन शिखरों, चार गुंबदों और तीन मंज़िला वाला एक भव्य मंदिर दो साल में निर्मित हुआ।
इसी अवधि में सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य भी तेजी से प्रगति पर था। 11 मई 1951 को सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन हुआ और इसके ठीक 9 महिने बाद 9 गाभारा वाले पूरे भारत में एक मात्र इस विशाल जैन मंदिर कि भी यहाँ प्रतिष्ठा हुई।
ऐसे अनोखे और अलौकिक जैन मंदिर के निर्माण पर 11 लाख से ज्यादा खर्च हुआ था।
9 गर्भगृह (गभारे) वाला भारत में एक मात्र जिनालय – श्री चंद्रप्रभस्वामी जैन देरासर प्रभास पाटन
मंदिर में नौ मूलनायक भगवान विराजमान हैं:
- मूलनायक श्री चंद्रप्रभस्वामीजी
- श्री शीतलनाथ
- श्री सुविधिनाथ
- श्री संभवनाथ
- श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ
- श्री मल्लिनाथजी
- श्री चंद्रप्रभस्वामी
- श्री दादा-दोकड़िया पार्श्वनाथजी
- श्री आदिश्वरजी
विशेषताएँ:
- यह भारत का एकमात्र ऐसा जिनालय है, जिसमें नौ गर्भगृह (गभारे) हैं।
- तीन मंजिला ऊँचाई, तीन विशाल शिखर और चार गुंबद इस मंदिर को अद्वितीय बनाते हैं।
- वर्तमान मंदिर की प्रतिष्ठा 12 फरवरी 1952 को हुई थी।
यहाँ पर में सोमनाथ मंदिर के बारे में एक बात कहना चाहूँगा की 649 ईस्वी में वल्लभी वंश के शासक राजा ने सोमनाथ मंदिर का पहला जीर्णोद्धार कराकर पुनर्निर्माण करवाया। और 788 ईस्वी में वल्लभी साम्राज्य के पतन के साथ ही अरब आक्रमणकारियों ने इस मंदिर को पहली बार ध्वस्त किया था।
मंदिर के नौ गृभगृहों (गभारे) में नौ मूलनायक भगवान विराजमान हैं, और इनके चारों ओर विभिन्न अन्य जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं।
विक्रम संवत 2008 की महाशुदी 6 के मंगल दिन, दिनांक 12 फरवरी 1952 व मंगलवार को पूज्यपाद आचार्यदेव श्री चंद्रसागरसूरीश्वरजी के वरदहस्त से मूलनायक श्री चंद्रप्रभस्वामीजी को गजेंद्रपूर्ण प्रासाद में प्रतिष्ठित किया गया।
मूलनायक के दाहिनी ओर स्थित गृभगृह में श्री शीतलनाथ, श्री सुविधिनाथ, श्री संभवनाथ और श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ प्रभुजी विराजमान हैं। ये सभी भगवान की अद्भुत एवं प्रभावशाली प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से कुछ अष्ट-प्रतिहार्य के परिकरयुक्त भी हैं। इसी प्रकार, मूलनायक के बायीं ओर स्थित गृभगृह में श्री मल्लिनाथजी, श्री चंद्रप्रभस्वामी, श्री दादा-दोकड़िया पार्श्वनाथजी और श्री आदिश्वरजी विराजमान हैं। ये प्रतिमाएँ भी परिकर से सुसज्जित हैं और अत्यंत भव्य हैं।
श्री दोकड़िया पार्श्वनाथ | श्री चंद्रप्रभस्वामी जैन देरासर प्रभास पाटन
विशेष रूप से, श्री दादा पार्श्वनाथजी की प्रतिमा अत्यंत प्राचीन और प्रभावशाली मानी जाती है। कुछ वर्षों पूर्व, दीवानशाही दोकड़िया की मुद्रा (पैसा) इस भगवान की पलंथी (પલાંઠી) में से निकलती हुई देखी गई थी। आज भी एक डोकड़िया का सिक्का भगवान की पलंथी में चिपका हुआ स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जो इस प्रतिमा की अद्भुत दिव्यता और प्रभावशाली इतिहास को दर्शाता है।
इस प्रकार, मंदिर के नौ गृभगृहों (गभारे) में नौ मूलनायक भगवान विराजमान हैं, और इनके चारों ओर विभिन्न अन्य जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं।
मंदिर के ऊपरी तल पर कुल पाँच गृभगृह हैं। इनमें मध्य स्थित गृभगृह में मूल भगवान श्री शांतिनाथजी विराजमान हैं। उनके चारों ओर श्री शांतिनाथजी और श्री श्रेयांसनाथजी प्रतिष्ठित हैं। शिखरों की दाहिनी ओर स्थित गृभगृह में श्री अजितनाथ भगवान विराजमान हैं, जो 170 विहरमान जिनों के परिकरयुक्त हैं। प्रतिष्ठा महोत्सव के दौरान, पूज्य आचार्यदेवश्री के पावन हस्तों से श्री अजितनाथ भगवान की प्रतिमा का अंजनशलाका विधिवत् बड़े धूमधाम से संपन्न हुआ।
मंदिर के ऊपरी तल के बाएँ कक्ष में श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान विराजमान हैं, जो अपनी दिव्यता और प्रभावशाली आभा से श्रद्धालुओं को आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं।

महान जैन आचार्यों का योगदान
आचार्य श्री हेमचंद्रसूरीजी की प्रेरणा से गुर्जर राजा सिद्धराज जयसिंह और महाराजा कुमारपाल ने इस तीर्थ की यात्रा की। कुमारपाल महाराज ने यहाँ ‘कुमारविहार’ और ‘अष्टपदावतार’ जैसे भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया। महुवा के प्रसिद्ध पोरवाड श्रावक श्री जगडू सेठ, जिन्होंने शत्रुंजय तीर्थ पर महाराजा कुमारपाल के संघ की तीर्थमाला सवा करोड़ की बोली में प्राप्त की थी, उन्होंने भी यहाँ चंद्रप्रभास तीर्थ की यात्रा कर मूलनायक भगवान को सवा करोड़ रुपये मूल्य का हार भेंट किया।
13वीं शताब्दी में गुर्जर मंत्री श्री वस्तुपाल-तेजपाल ने यहाँ अपने परिवार सहित यात्रा की। उन्होंने भगवान आदिनाथ और भगवान महावीर के बिंब स्थापित कर अष्टापद चैत्य और पौषधशाला का निर्माण करवाया। इसी काल में आचार्य श्री देवेन्द्रसूरीजी ने यहीं रहकर ‘श्री चंद्रप्रभ चरित्र‘ नामक 5300 श्लोकों का ग्रंथ लिखा।
14वीं शताब्दी में श्री धर्मघोषसूरीजी महाराज ने यहाँ यात्रा कर शत्रुंजय के पूर्व अधिष्ठायक श्री कपर्दी यक्ष को इस तीर्थ का अधिष्ठायक बनाया। इस शताब्दी में पवित्र तीर्थस्थल शत्रुंजय तिर्थोध्धारक श्री समराशा ने इस पवित्र तीर्थस्थल की तीर्थयात्रा की थी।
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विक्रम संवत 2008 महासुदि 6 के मंगल दिन इस जिनालय की प्रतिष्ठा हुई
17वीं शताब्दी में पूज्य आचार्य श्री विजयहिरसूरीजी महाराज अपने शिष्यों सहित इस पावन तीर्थ की यात्रा पर पधारे। विक्रम संवत 1666 में, उनके पट्टधर आचार्य श्री विजयसेनसूरीजी के पावन हस्तों से पोष सुदि 6 से महासुदि 6 तक, पूरे एक माह तक अनेक अंजनशलाका प्रतिष्ठाएँ संपन्न हुईं। संयोगवश, ठीक 342 वर्ष बाद, उसी शुभ दिवस—महासुदि 6 को—इस जिनालय की प्रतिष्ठा पुनः संपन्न हुई।
इस अवधि के बीच, मांगरोल निवासी प्रसिद्ध श्रेठी श्री सुंदरजी मकनजी ने इस जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया, जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1876 की महासुदि 8 के शुभ दिन संपन्न हुई।
14वीं शताब्दी में श्री धर्मघोषसूरीजी महाराज ने यहाँ यात्रा कर शत्रुंजय के पूर्व अधिष्ठायक श्री कपर्दी यक्ष को इस तीर्थ का अधिष्ठायक बनाया
इतिहास साक्षी है कि 18वीं शताब्दी तक इस तीर्थ स्थल की संघ की जाहोजलाली और महिमा अद्वितीय थी, जो इसकी ऐतिहासिक और धार्मिक गरिमा को दर्शाती है।
चन्द्रप्रभासपाटन शहर आज भी अनेक ऐतिहासिक स्मारकों, मूर्तियों, स्थापत्य कला आदि से समृद्ध है। इसके दक्षिण-पश्चिमी भाग में विशाल सागर की भव्य लहरें पानी से टकराती हुई आसमान को छू रही हैं तथा सागर की गर्जना यहां निरंतर प्रवाहित होती रहती है, जिससे यहां दिन-रात संगीत की शांतिपूर्ण ध्वनि प्रवाहित होती रहती है।

अतीत में इस तीर्थ स्थल पर अनेक जिन मंदिर स्थित थे, जो 19वीं शताब्दी में विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए। समय के प्रभाव से ये भव्य मंदिर धीरे-धीरे जीर्ण-शीर्ण हो गए। अंततः, विक्रम संवत 1877 की महासुदी अष्टमी के शुभ दिन पर इस पवित्र स्थल का जीर्णोद्धार किया गया। तब से लेकर आज तक, यहाँ आठ जिनालय एक ही क्षेत्र में स्थित हैं। इसके अतिरिक्त, एक मंदिर जैन समुदाय के निवास क्षेत्र में स्थित था, जो आज भी वहीं प्रतिष्ठित है।
श्री चंद्रप्रभस्वामी जैन देरासर प्रभास पाटन में इस मुख्य जिनालय के अतिरिक्त पाँच अन्य मंदिर भी स्थित हैं
शहर के केंद्र में, बाजार के स्तर से 85 फीट की ऊँचाई पर स्थित, यह भव्य जिनालय अपनी तीन मंजिला ऊँचाई, तीन विशाल शिखरों, नौ गर्भगृहों और 100×70 फीट की भव्य संरचना के साथ पूरे भारत में अपनी तरह का एकमात्र मंदिर है। इसकी गगनचुंबी उपस्थिति श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक शांति और भव्यता का अनुभव कराती है।
चंद्रप्रभास-पाटन महातीर्थ में इस मुख्य जिनालय के अतिरिक्त पाँच अन्य मंदिर भी स्थित हैं। इसके साथ ही यहाँ श्रद्धालुओं की सुविधा हेतु भव्य उपाश्रय, भोजनालय, आयंबिल भवन, धर्मशाला, देरासरजी की पेढीं, जैन पाठशाला, पुस्तकालय और जैन चिकित्सालय जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
यह प्राचीन एवं ऐतिहासिक रूप से समृद्ध तीर्थ स्थल पूरे भारत से आने वाले तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहाँ न केवल जैन श्रद्धालु, बल्कि अन्य धर्मों के पर्यटक भी इस भव्य मंदिर की भव्यता से अभिभूत होते हैं और जैन धर्म के सिद्धांतों का अनुमोदन करते हैं।