Sunday, February 2, 2025
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Taranga Tirth History तारंगा जैन तीर्थ

Taranga Tirth History: तारंगा तीर्थ गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थित एक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल है, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर के लिए प्रसिद्ध है। इस तीर्थ का महत्व न केवल जैन समुदाय के लिए है, बल्कि यह भारतीय इतिहास, वास्तुकला, और लोकगाथाओं का एक अद्वितीय केंद्र भी है। 

यात्रा और तीर्थयात्रा: भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा 

यात्रा और तीर्थयात्रा भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही है। इसका इतिहास सदियों पुराना है, और समय के साथ इसमें कई बदलाव आए हैं। पहले तीर्थयात्रा का मुख्य उद्देश्य धार्मिक था, लेकिन आज यह आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अनुभवों का संगम बन गई है। आधुनिक समय में तीर्थयात्रा को एक पर्यटन अनुभव के रूप में भी देखा जाता है। 

पुराने समय में तीर्थयात्रा करने से पहले लोग महीनों की तैयारी किया करते थे। यात्रा के साधन सीमित और कठिन थे, इसलिए यात्रियों को अपने भोजन, पानी और अन्य आवश्यक वस्तुओं को पहले से तैयार करना पड़ता था। उस समय तीर्थयात्रा अक्सर पैदल या बैलगाड़ी, घोड़ा, ऊंट, और हाथी जैसे साधनों पर निर्भर करती थी। 

तारंगा हिल और मेहसाणा: रेलवे का विकास 

Old time Transpotation

भारत में रेलवे का विस्तार 1860 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान, भारत में रेलवे के विस्तार पर जोर दिया गया। मेहसाणा एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र होने के कारण, यहाँ से रेलवे का मार्ग बनाना महत्वपूर्ण समझा गया। 

1880 के दशक में मेहसाणा और तारंगा हिल के बीच रेलवे लाइन का निर्माण शुरू हुआ। इस मार्ग का उद्देश्य न केवल व्यापारिक परिवहन को बढ़ाना था, बल्कि धार्मिक यात्राओं को भी आसान बनाना था। 

1887 मेहसाणा-तारंगा रेलवे लाइन का उद्घाटन हुआ। यह एक नैरो-गेज (संकरी लाइन) रेलवे थी, जिसे बाद में ब्रॉड-गेज में परिवर्तित किया गया। 

तारंगा जैन तीर्थ का महत्व 

old time Rail Mahesana

 

तारंगा हिल, जो जैन धर्म के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है, अपनी अद्वितीयता और पवित्रता के लिए प्रसिद्ध है। 12वीं शताब्दी में यहाँ श्री अजीतनाथ भगवान का भव्य जैन मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर और पहाड़ी क्षेत्र तक पहुँचने के लिए 19वीं शताब्दी में बड़ी संख्या में तीर्थयात्री आते थे। रेलवे सेवा के आने से उनकी यात्रा अधिक सुलभ हो गई। 

पुराने समय की यात्रा सुविधाएँ 

तारंगा हिल स्टेशन से तलेटी लगभग 2 मील (लगभग 3.5 किलोमीटर) दूर थी। यात्रियों के लिए स्टेशन के पास एक छोटी धर्मशाला उपलब्ध थी। तलेटी की धर्मशाला में बर्तन, गादी, तकिया आदि सुविधाएँ दी जाती थीं। और यात्रियों को भाता दिया जाता था. वहां से सिद्ध शिला और कोटि शिला जैसे स्थानों तक पहुँचने के लिए डोली और बच्चों के लिए ‘उपडामनिया’ मजदूर उपलब्ध रहते थे। उस समय यात्रियों को 3 आना (लगभग 19 पैसे) का ‘मुंडका वेरो’ (यात्री कर) देना पड़ता था।

तारंगा जैन तीर्थ का भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्व 

old taranga tirth

गुजरात के मेहसाणा जिले के खेरालू तालुका में स्थित तारंगा पर्वत समुद्र तल से 364 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और अरावली पर्वतमाला का हिस्सा है। चारों ओर की प्राकृतिक सुंदरता इसे और भी विशेष बनाती है। इसके उत्तर में भेमपुरा और टिम्बा जैसे गाँव हैं, जबकि दक्षिण में कनोरिया, कुडा, और राजपर गाँव स्थित हैं। इसके पश्चिम में तारंगा रेलवे स्टेशन है। By Road Ahmedabad to Taranga tirth Distance 3 hr 2 min (128.7 km) via Gandhinagar होता है।

इस क्षेत्र में साबरमती नदी के स्रोत और अन्य जलधाराएँ भी हैं, जो इसकी प्राकृतिक सुंदरता में चार चाँद लगाती हैं। 

सन् 1165-1170 के आसपास, सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल के शासनकाल में तारंगा हिल पर श्री अजीतनाथ भगवान का भव्य मंदिर बनवाया गया।

इस तीर्थ की स्थापना के संदर्भ में श्री जिनमंडन गणिवर लिखते हैं: 

Maharaja Kumarpal“जैन धर्म स्वीकार करने से पहले, राजा कुमारपाल ने अजमेर के राजा अर्नोराज को पराजित करने के लिए मरुदेश के दुर्जयगढ़ पर 11 बार चढ़ाई की थी। लेकिन किले पर कब्जा नहीं कर सके, क्योंकि किले के चारों ओर बबूल और बोर्डी के घने जंगल थे। हताश होकर राजा ने अपने मंत्री वागुभट्ट से पूछा कि क्या कोई ऐसा देवता है, जिसकी पूजा से शत्रु पर विजय प्राप्त हो सके।”

वागुभट्ट ने बताया कि पाटन में उनके पिता द्वारा बनाए गए श्री अजितनाथ भगवान के मंदिर की महिमा अद्वितीय है। राजा ने उस मंदिर में जाकर पूजा की और युद्ध में विजय प्राप्त की। लौटते समय राजा का ध्यान तारण पर्वत की ओर गया, जो उन्हें अद्वितीय शांति प्रदान कर रहा था। 

Kumarpal maharaj -Hemchandrachary

जैन धर्म स्वीकारने के बाद, एक दिन राजा ने अपने गुरु श्री हेमचंद्राचार्य से तारण पर्वत के महत्व के बारे में पूछा। गुरु ने बताया कि यह स्थान सिद्ध मुनियों द्वारा तपस्या और सिद्धि प्राप्ति का स्थल रहा है और इसकी महिमा शत्रुंजय पर्वत के समान है। 

इसके बाद, राजा ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के दौरान देखे गए इस सुंदर पर्वत पर भगवान श्री अजितनाथ का भव्य जिनालय बनवाने का संकल्प लिया। 

इतिहास के कुछ पन्नो में एसा भी कहा गया गया है की अर्नोराज से युद्ध में विजय पाने के लिए राजा कुमारपाल ने तारण पहाड़ पर भगवान श्री अजितनाथजी का जिनालय बनवाने की मन्नत रखी थी.

मंदिर का निर्माण और इतिहास – Taranga Tirth History

राजा कुमारपाल ने जैन धर्म स्वीकार किया था और सन् 1159 ईस्वी (संवत 1216) में श्री अजितनाथ भगवान के मंदिर का निर्माण शुरू हुआ। यह मंदिर संभवतः संवत 1216 से 1230 के बीच बनकर तैयार हुआ। 

तारंगा तीर्थ का उल्लेख कई प्राचीन शिलालेखों और ग्रंथों में मिलता है। संवत 1285 (1229 ईस्वी) में मंत्रीश्री वस्तुपाल द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ और खत्तक आज भी इतिहास का प्रमाण हैं। जिनकी प्रतिष्ठा उनके कुलगुरु नागेंद्रगच्छिय विजयसेन सूरी ने करवाई थी।

Delwara jain mandir old photoTaranga Tirth History में माउंट आबू पर लूणवासही के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वरहुडिया परिवार ने भी यहाँ एक गवाक्ष (खत्तक) बनवाया था। संवत 1304 और 1305/ईसवी सन 1248 और 1249 में राजगच्छीय वादिन्द्र धर्मघोषसूरी की परंपरा के भुवनचंद्रसूरी ने यहां अजितनाथ की दो प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कराईं। बेशक, आज केवल लेख बचे हैं, मूल बिम्बो नष्ट हो गए हैं।

पंद्रहवी शताब्दी के मध्य भाग में रचित रत्नमंडनगणि कृत एवं सुकृतसागर ग्रंथ की टिप्पणी के आधार पर प्राप्त जानकारी के अनुसार मालवमंत्री पृथ्वीधर (पेथड शा ) के पुत्र जांजण शाह ने तपागच्छीय धर्मघोष के साथ इसवी सन १२६४ में संघ सहित, तारंगा की यात्रा पर आये थे.  इस प्रकार 13वीं शताब्दी के अंत भाग में खतरगच्छीय तृतीय जिनचंद्रसूरी भी संघ सहित वन्दना करने आये हुए थे. इसप्रकार १३वी शताब्दी तक में  तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गया था।

13वीं शताब्दी के अंत तक तारंगा तीर्थ एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बन चुका था। 

मंदिर का विनाश और पुनर्निर्माण | Taranga Tirth History

Front_view_of_the_Adinatha_Temple,_Timba_Gujarat

14वीं शताब्दी में, मुस्लिम आक्रमणों के दौरान गुजरात के कई मंदिरों को नुकसान पहुंचा, जिनमें तारंगा का यह चैत्य भी शामिल था। 15वीं शताब्दी में तपागच्छ के मुनिसुंदरसूरी और सोमसौभाग्य काव्य में उल्लेख मिलता है कि मलेच्छ आक्रमण के बाद गोविंद श्रेष्ठी (साधू) ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और नई प्रतिमा स्थापित करवाई। 

गोविंद साधू, जो ईडर के एक प्रमुख व्यापारी थे, वे इडर के प्रसिद्ध श्रेष्ठी श्री वत्सराज संधवी के पुत्र थे. उनके घर में करोड़ों की लक्ष्मी का वास था. फिर भी वह सादगी से समय बिताते थे इसलिए वे गोविंद साधु के नाम से जाने जाते थे। उनका हृदय उदारता और प्रेम से भरा था। धार्मिक भावना का विकास हुआ था।

गोविंद साधु ईडर के राय श्री पुंजाजी के बहुत बड़े प्रशंसक थे। गोविंद सेठ तारंगा में अजितनाथ की मूर्ति तैयार करवाने के लिए आरासुर गए और अंबिकामाता की पूजा की, उन्हें प्रसन्न किया।

Taranga jain Tirth

मूर्ति के लिए आरासुर से बैलगाड़ी में पत्थर तारंगा लाए, वहाँ गोविंद सेठ ने भगवान श्री अजितनाथ की नई प्रतिमा बनवाई और आचार्य श्री सोमसुंदरसूरी से इसकी अंजन शलाका करवाई। इस नई मूर्ति की प्रतिष्ठा संवत 1479 के आसपास की गई थी, जैसा कि मूर्ति पर लगे जीर्ण-शीर्ण शिलालेख से पता चलता है।

Taranga Tirth History: तारंगा तीर्थ का महत्व

तारंगा पर्वत जैन संस्कृति और भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्थल है। इस तीर्थ का नाम समय के साथ बदलता रहा है। इसे “तरंगक पर्वत,” “तरंगनाग,” “तारणगिरि,” और “तारणगढ़” के नामों से भी जाना जाता है। 

इस पवित्र स्थल की महिमा उसकी प्राकृतिक सुंदरता, ऐतिहासिक शिलालेखों, और धार्मिक महत्व में छिपी हुई है। तारंगा तीर्थ न केवल जैन धर्म का प्रतीक है, बल्कि यह कला, संस्कृति, और अध्यात्म का संगम भी है। 

वास्तुकला और मंदिर की विशेषताएँ: तारंगा जैन मंदिर स्थापत्य कला का एक अद्वितीय उदाहरण है। इस मंदिर का निर्माण सोलंकी नरेश कुमारपाल ने करवाया था और यह आज भी अपनी शिल्पकला और भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर में 230 फीट का एक विशाल आंगन है, जिसमें भगवान अजितनाथ का 142 फीट ऊँचा भव्य मंदिर स्थित है। मंदिर में प्रवेश करते ही अंबिका माता और द्वारपाल की मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। मुख्य मंदिर के चारों ओर 64 पंक्तियाँ हैं, जिन पर सुंदर नक्काशी की गई है।

मंदिर के मंडोवर और शिखर चावल की भूसी से भरे हैं। इसके गुम्बदों और स्तंभों पर यक्ष, गंधर्व और नर्तकों की मूर्तियों का शिल्प भी देखने लायक है। हालांकि, यह मंदिर आबू के मंदिरों की तरह अत्यंत बारीक नहीं है, फिर भी इसकी भव्यता और ऊँचाई अपनी ओर आकर्षित करती है।

स्मारक और दिगंबर समुदाय के मंदिर: तारंगा में दिगंबर जैन समाज के भी कई मंदिर और स्मारक हैं। यहाँ के प्राचीन संभवनाथ जिनालय में दिगंबर संप्रदाय के अनुयायियों का समर्पण देखने को मिलता है। मंदिर के प्रवेश द्वार के निकट एक कीर्तिस्तंभ स्थापित है, जो राजा कुमारपाल के समय का है। यहाँ अन्य जैन तीर्थों का भी विवरण मिलता है, जिनके संरक्षण का कार्य समय-समय पर होता रहा है।

संरक्षण और आज का तारंगा तीर्थ: आज, तारंगा जैन तीर्थ एक संरक्षित धरोहर स्थल है। यहाँ श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदाय के पाँच-पाँच मंदिर हैं, जिनमें से कुछ आधुनिक सराय और भोजनालयों के साथ-साथ भक्तों के लिए ठहरने की भी व्यवस्था है। यह स्थल अपने आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व के कारण आज भी श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है और यहाँ हर वर्ष लाखों लोग दर्शन के लिए आते हैं।

तारंगा का ऐतिहासिक महत्व 

Veni Vatsraj

तारंगा, जिसे कभी “तारानगर” के नाम से जाना जाता था, यह प्राचीन भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास का प्रतीक है। यह स्थल तारणमाता की गुफा और तारादेवी के स्मारकों के कारण प्रसिद्ध है। तारणमाता की गुफा इस स्थान की पौराणिक और धार्मिक मान्यताओं का केंद्र है। 

यह क्षेत्र वेणीवत्सराज जैसे सूर्यवंशी शासकों और उनके साहसिक कारनामों के लिए भी जाना जाता है। उनकी कथा आर्य और नाग जातियों के बीच संबंधों, संघर्षों, और सांस्कृतिक सामंजस्य की प्रतीक है। 

तारणमाता और तारादेवी

Taranga Tirth History में तारंगा का नाम तारणमाता की गुफा से जुड़ा है, जो पहाड़ी की तलहटी से उत्तर दिशा में स्थित है। यहाँ तारादेवी की पूजा की जाती है, जो बौद्ध धर्म में एक पवित्र देवी मानी जाती हैं। वर्तमान में, हिंदू समुदाय भी उन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजता है। यह स्थान “आसो सूद 14” के दिन आयोजित मेले के लिए प्रसिद्ध है, जो श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए एक महत्वपूर्ण आकर्षण है। 

Taranga Tirth Contact Number

तारंगा जी तीर्थ: सेठ आनंदजी कल्याणजी तारंगा मंदिर, पिन-384350 ज़िला मेहसाणा, गुजरात फ़ोन नंबर: 9428000601 / 9428000602 प्रबंधक : 9428000612

 

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